गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर गुरु कृपा से लिखा ये गुरु आशीर्वाद प्रेषित कर रहा हूँ इस बार आर्टिकल के रूप में

मेरे प्रणाम स्वीकार कीजिए
।।गुरु पूर्णिमा विशेष।।

“तुम गुरु को मत ढूँढना
गुरु तुम्हें स्वयं ही ढूँढ लेंगे”।

गुरु का मुख्य कार्य आपके साधना के मार्ग में आने वाले अवरोधों को हटाने का होता है। आपकी साधना की गाड़ी चल रही है और मार्ग में एक गड्ढा आ गया तो बड़ी उलझन हुई, ये तो अड़चन आन पड़ी!! अब क्या होगा?? अब गुरु का खेल होगा उसकी कृपा बरसेगी। अब मार्ग में आन पड़े इस गड्ढे को भरने का कार्य गुरु द्वारा होगा, वो करंगें धरती को समतल, वो बनायेंगे मार्ग। साधना का मार्ग प्रशस्त करेंगे गुरु। तो साधना की गाड़ी चल रही है और मार्ग में कोई दरिया आ गया तो उसपर पुल गुरु बनायेंगे, तो गुरु कहते है की मैं लेट जाता हूँ तुम बढ़ो आगे तो गुरु नादिया के इस किनारे से उस किनारे तक लेट जाएँगे की मेरे ऊपर से होकर गुजर जाओ और आगे बढ़ो। तो शिष्य का कर्त्तव्य है कि गुरु के ऊपर से होकर साधना के पथ पर आगे बढ़ें।फिर कोई बहुत बड़ा पहाड़ आ गया तो क्या होगा?? तो गुरु कहेंगे की मेरे कंधे पर बैठ मैं तुम्हें पहाड़ पार कराता हूँ, फिर चालू करो यात्रा अपनी तो कोई दलदल आ गई तो क्या करोगे दलदल में फँस जाओगे, संसार का, भय का, क्रोध का, ईर्ष्या का कितने ही तो दलदल है तो गुरु कहेंगे कि डरो मत, मैं तुम्हारी कमर में रस्सी बांधता हूँ ना , मैं सहारा देता हूँ तू दलदल पार कर। और यें ही वो रास्ता है जोकी ईश्वरीय मार्ग है। तो गुरु आपके ईश्वरीय मार्ग को प्रशस्त करते है तदपि आपके करमों के अनुकूल आपको अनेकानेक प्रकार कि अड़चनें आयेंगी हाई आयेंगी। साधना के मार्ग की उन अड़चनों को मिटाने का नाम गुरु है। इसलिये बोलते गुरु की शीघ्र और अति आवश्यकता है। गुरु चाहिये ही चाहिए। जीवन का फल पाने के लिए गुरु चाहिये उसके बिना बनेगी नहीं।

पहले तो आश्रम होते थे तो साधक गुरु के सामने रहते थे दृष्टि में रहते थे तो गुरु की तीक्ष्ण दृष्टि उनपर सदैव रहती थी तो उनकी परख होती रहती थी, तो गुरु आश्रम में विलग विलग साधको को ऐसा कार्य देते की उनका अहंकार टूटे। पर अब तो ऐसा नहीं है समय, काल, व्यवस्था सब बदल गया है अब सब बदल गया है तो इसीलिए कहता हूँ कि अनुभव लो, आपके अनुभव ही आपके आध्यात्मिक मार्गदर्शन कि प्रक्रिया सुनिश्चित करते है।

साधना का मूल उद्देश्य स्वयं को जानना है। साधना से हम स्वयं के समीप आते है और हम स्वयं को जान पाते है जब हम स्वयं को जान पाते है तो हम सबको जान पाते है, जब हम सबको जान पाते है तो हम अनंत को जान पाते है, अनंत को जानना ही ईश्वर को जानना है, ईश्वर को जानना शून्य को समझ लेने जैसा है। तो आपको यहाँ विरोधाभास लगेगा की कभी एक कभी अनंत कभी शून्य तो लगने देना पर यात्रा मत रोकना, यात्रा चलती रहे बस ये ख़्याल बना रहे, यात्रा ना रुके। यात्रा रोक दो साधना छोड़ दो तो कोइ उपाय नहीं है। मन घुमा देगा साधना छुड़वा देगा की अरे सब बेकार की बात है, गुरु के प्रति विद्वेष से भर देगा तो क्या करोगे? शरीर तो एक ही है, शरीर पर अध्ययन करते है डॉक्टर तो वो एक शरीर को जान जाते है तो सभी शरीरों को जान जाते है। अब वे किसी भए शरीर पर कार्य करने के लिए, किसी भी शरीर की पीड़ा मिटाने को , उपचार करने को अधिकृत है क्योंकि वो शरीर को जान चुके है तो तुम भी जान लो स्वयं को और मिटाओ पीड़ा, बड़ा अद्भुत खेल है बड़ा आनंद दायक , खेलों किसने रोका है। गुरु यही खेल खेल रहे है तुम्हारे संग। तुम्हारी मार्ग बाधा साफ़ करने का , तुम्हारे मार्ग बंधनों को खोलने का , यही खेल खेल रहे है गुरु। सदा से खेल रहे है ये खेल शाश्वत है नित नूतन है तुम बढ़ते चलो अध्यात्म के पथ पर। कोई संदेह है तो गुरु के सामने रख दे और निवेदन करना की हे गुरुदेव हे प्रभु आपकी वस्तु आपको अर्पण , और ठहर जाना रुक जाना थोड़ा झुक जाना गुरु के समक्ष, गुरु येन केन प्रकैरण आपके संदेह का दोहन अवश्य करेंगे ऐसा अनुभव में सदा से आता रहा है यही गुरु का जीवन है यही गुरु का कर्म है यही गुरु का कर्तव्य है यही गुरु की मोज़ यही गुरु की मर्यादा।

गुरु खोजने मत जाओ
बस शिष्य बन जाओ
गुरु शिष्य को खोज रहा है
वो तुम्हें ढूँढ लेगा
जिस क्षण तुम शिष्य बने
उसी क्षण गुरु तुम्हारे सामने हींगें।

गुरु पूर्णिमा कीढेरों शुभकामनाएँ।

श्री परमगुरुदेव के श्री चरणों से एकत्रित कुछ पुण्य प्रसून।

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